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देहरादून। दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान के संस्थापक एवं संचालक सद्गुरू आशुतोष महाराज जी की असीम अनुकम्पा से संस्थान द्वारा अपने निरंजनपुर स्थित आश्रम सभागार में विशाल स्तर पर साप्ताहिक रविवारीय सत्संग-प्रवचनों तथा मधुर भजन-संर्कीतन के कार्यक्रम का आयोजन किया गया। संस्थान की प्रचारिका साध्वी अनीता भारती जी ने उपस्थित भक्तजनों के समक्ष अपने विचारों को प्रस्तुत करते हुए बताया कि मनुष्य का जीवन अनमोल है, यह देवी-देवताओं के लिए भी दुर्लभ है, इस जीवन का परम लक्ष्य परमात्मा की प्राप्ति है, पूर्ण सद्गुरूदेव की शरणागत होकर उनसे पावन ‘ब्रह्मज्ञान’ की प्राप्ति करके अपना आवागमन समाप्त करना ही मनुष्य जीवन का एकमात्र उद्देश्य है। यह बात मनुष्य ने अपने जीवन में न जाने कितनी ही बार श्रवण की होगी। प्रश्न है कि क्या उसने इन सभी शास्त्रोक्त उद्घोषणाओं को अपने जीवन में लागू किया? इस संसार में दरिद्रता की अपने-अपने मनानुसार लोग व्याख्या किया करते हैं। वास्तव में महापुरूषों की इस सम्बन्ध में दी गई व्याख्या ही सर्वोपरि व्याख्या है। वे कहते हैं कि जिसने अपने जीवन में ईश्वर को धारण नहीं किया वो ही वास्तविक दरिद्र है। चार प्रकार से महापुरूष इस दरिद्रता को रेखांकित करते हुए कहते हैं कि प्रथम दरिद्रता है, मानसिक दरिद्रता! जिसका मन मात्र संसार और संसार के मायावी आकर्षणों में लिप्त रहता है और येन-केन-प्रकरेण उसका एक ही पुरूषार्थ रहता है कि संसार के भौतिक पदार्थों को ही एकत्रित किया जाए, भोगों में लिप्त रहा जाए और मन की गुलामी करते हुए एक दिवस इस संसार से रिक्त हाथों कूच कर लिया जाए। दूसरी दरिद्रता है अभावग्रस्त दरिद्रता! संसारिक वस्तुओं, इन्द्रियजनित भोग पदार्थों की कमी रहना, ईश्वर तथा ईश्वर की चर्चा से सर्वथा वंचित रहते हुए मात्र परिवार और नातों-रिश्तों के लिए हर समय चिंतित रहना, इसे अभावग्रस्त दरिद्रता कहा जाएगा। तीसरी दरिद्रता विवेक शून्य दरिद्रता! अर्थात सोचने-समझने और विचार करने की शक्ति का गौण हो जाना। अच्छा-बुरा, ऊँच-नीच, सत्य-असत्य इन सभी बातों से विवेक शून्य हो जाना, यह भी एक विकट दरिद्रता है। एैसा व्यक्ति समाज़-राष्ट्र-विश्व के लिए किसी भी तरह लाभकारी नहीं रह जाता। चौथी और सबसे अहम दरिद्रता है, ज्ञान की दरिद्रता! जिसने अपने जीवन में कभी ईश्वर प्राप्ति का यत्न नहीं किया, जिसने शास्त्र-सम्मत परम गुरू की खोज़ नहीं करते हुए उस पावन ‘ब्रह्मज्ञान’ से जो सदा अनभिज्ञ रहता है और पूर्ण गुरू के कृपाहस्त तले ईश्वर दर्शन और उनकी प्राप्ति का कभी न तो विचार ही करता है और न ही कभी इन्हें पाने के लिए पुरूषार्थ ही किया करता है। एैसा व्यक्ति जीवन में सदैव उदासीन रहते हुए मात्र संसारिक ज्ञान में ही लिप्त रहकर भौतिक उपलब्धियों के नश्वर ज्ञान के लिए ही प्रयासरत रहता है, यह होती है ज्ञान दरिद्रता। वास्तव में जिसके जीवन में ईश्वर नहीं, वही सर्वाधिक दरिद्र है।
कार्यक्रम की शुरूआत मर्म को छू लेने वाले भजनों की श्रंखला को प्रस्तुत करते हुए किया गया। अनेक सुमधुर भजन मंचासीन ब्रह्मज्ञानी संगीतज्ञों द्वारा संगत के समक्ष रखे गए और संगत भाव-विभोर होकर इनसे आनन्दित होती गई।
भजनों की सारगर्भित गहन व्याख्या करते हुए मंच का संचालन साध्वी विदुषी स्मिता भारती जी ने किया। उन्होंने कहा कि शास्त्र उद्घोषित करता है- बड़े भाग मानुष तन पावा, सुर दुर्लभ सद् ग्रन्थहिं गावा, साधन धाम मोक्ष कर द्वारा, पावहिं जेहि परलोक संवारा। मनुष्य जीवन का सर्वांगीण विकास सत्संग के माध्यम से ही सम्भव है। शास्त्र की यह उद्घोषणा कि मनुष्य का शरीर बडे़ भाग्य से प्राप्त होता है और यह देवताओं के लिए भी अप्राप्य है तथा यह एक साधन है जिससे मनुष्य मोक्ष की प्राप्ति कर अपना लोक तथा परलोक दोनों संवार सकता है। वास्तव में सत्संग का तो अर्थ ही है सत्य का संग। सत$संग= यही है सत्य का संग। सत्य एकमात्र परमात्मा है जिसका साथ होना मात्र पूर्ण सद्गुरू के द्वारा ही सम्भव है। भगवान शिव स्वयं कहते है- बड़े भाग पाइये सत्संगा, बिन ही प्रयास होए भव-भंगा। इंसान के जीवन में जब पूर्ण सद्गुरूदेव द्वारा ईश्वर के दर्शन उपरान्त उनका संग हो जाता है, तब वह इन्सान अपने जीवन का वास्तविक कल्याण करने में सक्षम हो पाता है। सत्य का संग हो जाना बड़े सौभाग्य की निशानी है, इस पर भी देवाधिदेव भगवान शंकर जी अपनी भार्या जगत जननी माता पार्वती जी को कहते हैं- सुनहु उमा कहंु अनुभव अपना, सत्य हरि भजन जगत सब सपना। यह वास्तविकता है कि ईश्वर के बिना यह समूचा संसार मात्र स्वप्न ही तो है, जैसे ही स्वप्न टूटता है जीव का जीवन उससे रूठ जाता है, और वह काल-कवलित हो अपनी जीवन यात्रा व्यर्थ में ही पूर्ण कर संसार से कूच कर जाता है। अन्यान्य योनियां भोग योनि के अर्न्तगत आती हैं और अपने किए गए कर्मों का फल भोगने के लिए संसार में जन्म लेती हैं, वे कर्म भोगने के लिए विवश हैं। जबकि ‘सृष्टि का सिरमौर’ कहा जाने वाला मनुष्य कर्म योनि के अर्न्तगत जन्म लेता है, वह कर्मफल में अपने सुकर्मों से परिवर्तन लाने की और अपने नवीन भाग्य का निर्माण कर देने की सामर्थ्य रखता है। अपना जन्म-मरण समाप्त कर ईश्वर में ही समाहित हो जाने की असीम क्षमता रखता है। भगवान ने मानव को अपने जैसा ही बनाया है। ईश्वर स्वयं कहते हैं- सब मम प्रिय, सब मम उपजाए, सबसे अधिक मनुज मोहे भाए।
कार्यक्रम के समापन पर प्रसाद का वितरण किया गया।

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